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Monday 12 October 2020

टीआरपी का झगड़ा मीडिया के लिए ही आत्मघाती साबित होगा, इस लड़ाई में प्रणब मुखर्जी, भीष्म पितामह, कोई जज या रेफरी भी नहीं है, जो खतरे की सीटी बजा सके

टीवी चैनलों के बीच बेहूदा लड़ाई छिड़ी है। एक ओर जहां अर्णब गोस्वामी और उनका रिपब्लिक टीवी है तो दूसरी ओर बाकी हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ? ऐसे ध्रुवीकृत समय पर जब आप अपनी पसंद के किसी व्यक्ति या नेता की हर बात पर विश्वास करते हैं और विरोधी की हर बात को झूठ मानते हैं तो कुछ भी कहना बेकार है।

स्कूली बच्चों में अंदाज में हम इसे कह सकते हैं कि ‘मेरे बाप का क्या जाता है?’ ब्रह्मांड के इन महारथियों को लड़ने दें। दुर्भाग्य से हम इतने उदासीन नहीं हो सकते। यह समझाने के लिए मैं आपको एक कहानी बताता हूं। हॉलीवुड में एक फिल्म निर्माता ने युद्ध के दृश्य में वास्तविकता लाने के लिए बड़ी संख्या में एक्स्ट्रा जमा किए।

उसके फायनेंसर ने कहा कि यह अद्भुत है, लेकिन वह इन्हें पैसे नहीं देगा। तो फिल्म निर्माता ने कहा कि वह फिल्म के आखिरी दृश्य में इन सभी को असली हथियार दे देगा और वे एक-दूसरे को मार डालेंगे। यह वास्तविक भी लगेगा और पैसे लेने के लिए भी कोई नहीं बचेगा।

क्या आज आपको इसमें और समाचार मीडिया में कोई समानता नजर आती है? हम सभी यानी सबसे ताकतवर, सबसे लोकप्रिय, सबसे बेहतर और सबसे खराब अब असली हथियारों के साथ आपस में लड़ रहे हैं। जबसे हमने यह तरकीब सीख ली कि विपक्षी की किसी बड़ी खबर को नकारते हुए उसे फर्जी या बढ़ाचढ़ाकर पेश की गई बता दें।

या आप इसे चुरा लें और एक्सक्लूसिव का टैग लगाकर इस्तेमाल कर लें। ऐसा लगता है कि किसी दूसरे की ब्रेक की हुई खबर का फॉलोअप 20वीं सदी की बात हो गई है। यह तो केवल वक्त की ही बात थी कि स्टूडियो एवं न्यूजरूम की प्रतिद्वंद्विता, रेटिंग के फर्जी एवं बढ़ा-चढ़ाकर किए जाने वाले दावे, एक्सक्लूसिव, सुपर एक्सक्लूसिव, एक्सप्लोसिव एक्सक्लूसिव समाचारों का शोर जमीन पर आ जाएगा।

देश ने पिछले दो हफ्तों में देखा कि चैनलों के रिपोर्टर व कैमरामैन आपस में ही उलझे पड़े हैं। आप पूछ सकते हैं कि मैं क्यों चिंतित हूं? जब आपने हमें फिल्म निर्माता की कहानी सुना दी है तो इन्हें आपस में लड़ने-मरने दें और आप इसका लुत्फ उठाएं।

पहली बात, मीडिया के छोटे आकार को देखते हुए ऐसा नहीं हो सकता कि हम इस घटना को कुछ कर्मचारियों की लड़ाई के संकुचित दायरे में ही देखें। समाचार मीडिया अपने आप में एक संस्थान है। दूसरी बात, अगर आप सभी मीडिया संस्थानों, प्रतिद्वंद्वी ब्रॉडकास्टर संगठनों, पत्रकारों की हाउसिंग सोसायटियों व क्लबों की हालत देखें तो पता चलेगा कि हम एक-दूसरे के गले तक पहुंच गए हैं।

यह अपने ही लोगों को मारने की लड़ाई है। हम उन एक्सट्रा कलाकारों की ही तरह हैं। तीसरे, जरा सोचें कि हमें हथियार किसने दिए। इस खूनी फिल्म के निर्माता इन चैनलों के मालिक हैं, जो बाजार की अर्थव्यवस्था से संचालित हैं। मीडिया की ताकत का इस्तेमाल करके कई तरीकों से पैसा कमाया जा सकता है।

यही वजह है कि दूसरे सेक्टरों के रईस मीडिया कंपनियां खरीदते हैं। वे बहुत ही कम पैसा खर्च करते हैं और उनका कद बहुत बढ़ जाता है। हैसियत में आए इस बदलाव पर मंत्रियों, अफसरों एवं न्यायाधीशों सहित सबकी नजर पड़ती है। उनको तत्काल ही लाभ मिल जाता है।

मीडिया मालिकों और पत्रकारों का एक समूह खुद को राजनीति और सत्ता के खिलाड़ी के तौर पर देखता है। जब आप किसी टेलीविजन चैनल को कथित तौर पर फर्जी रेटिंग्स की वजह से पुलिस और प्रतिद्वंद्वी मीडिया समूह के दबाव में देखते हैं और इसके कुछ घंटों के भीतर देश में सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष और केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री का बयान आ जाता है तो आप जान सकते हैं कि दांव पर क्या है?

मीडिया में आज सत्ता का हिस्सा बनने की ललक आज पहले से कहीं अधिक है। जबकि, पहले मीडिया का काम सवाल पूछना होता था। तब सवाल पूछने पर परिणाम नहीं भुगतना पड़ता था। हद से हद नाराज मंत्री का फोन आएगा और उस इंटरव्यू का ही खंडन कर देगा। लेकिन, अब पत्रकारों की सत्ता तक पहुंच ही खत्म कर दी जाती है और इसका अंत आपके दरवाजे तक सरकारी एजेंसियों के पहुंचने से हो सकता है।

अगर मालिकों ने ही अपने आर्थिक हितों के लिए ये असली हथियार थमाए हैं तो सभी सरकारें तो टैक्स कलेक्टर ही हैं। इसलिए उसे ही सबसे फायदा है। जितना समाचार मीडिया कमजोर होगा, मालिक और पत्रकार दोनों ही सरकार पर उतने निर्भर होते जाएंगे। इससे समाचार मीडिया के एक संस्था के तौर पर विघटन का दौर उतना ही तेज हो जाएगा।

तब हम उस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में होंगे, जहां पर सुप्रीम कोर्ट से लेकर केंद्र सरकार तक हर कोई मीडिया का नियमन करना चाहेगा। यह किसी भी सरकार को दखल देने के लिए आदर्श स्थिति होती है। पिछले चार दशकों की सबसे ताकतवर सरकार आखिर यह अवसर क्यों खोना चाहेगी?

वे कहेंगे कि हम क्या कर सकते हैं, जब सभी नियमनों की धज्जियां उड़ी हुई हैं, आपके खुद के व्यावसायिक संस्थानों में मतभेद हैं और आप इस झगड़े में उलझे हुए हैं। हमारे व्यवसाय ने आत्मघाती बटन दबा दिया है। इस लड़ाई में प्रणब मुखर्जी, भीष्म पितामह, कोई जज या रेफरी भी नहीं है, जो खतरे की सीटी बजा सके। ऐसी बर्बर लड़ाई में इसे ही ‘हमारे बाप का क्या जाता है’ कहेंगे।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’


from Dainik Bhaskar

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